सोमवार, 31 मई 2010

विज्ञान और पुनर्जन्म

विज्ञान और पुनर्जन्म 
पुनर्जन्म आज एक धार्मिक सिद्धान्त मात्र नहीं है। इस पर विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों एवं परामनोवैज्ञानिक शोध संस्थानों में ठोस कार्य हुआ है। वर्तमान में यह अंधविश्वास नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्य के रुप में स्वीकारा जा चुका है।
पुनरागमन को प्रमाणित करने वाले अनेक प्रमाण आज विद्यमान हैं। इनमें से सबसे बड़ा प्रमाण ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत है। विज्ञान के सर्वमान्य संरक्षण सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा का किसी भी अवस्था में विनाश नहीं होता है, मात्र ऊर्जा का रुप परिवर्तन हो सकता है। अर्थात जिस प्रकार ऊर्जा नष्ट नहीं होती, वैसे ही चेतना का नाश नहीं हो सकता।चेतना को वैज्ञानिक शब्दावली में ऊर्जा की शुद्धतम अवस्था कह सकते हैं। चेतना सत्ता का मात्र एक शरीर से निकल कर नए शरीर में प्रवेश संभव है। पुनर्जन्म का भी यही सिद्धांत है।
पुनर्जन्म का दूसरा प्रत्यक्ष प्रमाण पूर्वजन्म की स्मुति युक्त बालकों का जन्म लेना है। बालकों के पूर्वजन्म की स्मृति की परीक्षा आजकल दार्शनिक और परामनोवैज्ञानिक करते हैं। पूर्वभव के संस्कारों के बिना मोर्जाट चार वर्ष की अवस्थ्सा में संगीत नहीं कम्पोज कर सकता था। लार्ड मेकाले और विचारक मील चलना सीखने से पूर्व लिखना सीख गए थे। वैज्ञानिक जान गाॅस तब तीन वर्ष का था तभी अपने पिताजी की गणितीय त्रुटियों को ठीक करता था। इससे प्रकट है कि पूर्वभव में ऐसे बालकों को अपने क्षेत्र में विशेष महारत हासिल थी। तभी वर्तमान जीवन में संस्कार मौजूद रहे।
प्रथमतः शिशु जन्म लेते ही रोता है। स्तनपान करने पर चुप हो जाता है। कष्ट में रोना ओर अनुकूल स्थिति में प्रसन्नता प्रकट करता है। शिशु बतख स्वतः तैरना सीख जाती है। इस तरह की घटनाएं हमें विवश करती हैं यह सोचने के लिए कि जीव पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है। वरन नन्हें शिशुओं को कौन सिखाता है?
डाॅ. स्टीवेन्सन ने अपने अनुसंधान के दौरान कुछ ऐसे मामले भी देखे हैं जिसमें व्यक्ति के शरीर पर उसके पूर्वजन्म के चिन्ह मौजूद हैं। यद्यपि आत्मा का रुपान्तरण तो समझ में आता है लेकिन दैहिक चिन्हों का पुनःप्रकटन आज भी एक पहेली है।
डाॅ. हेमेन्द्र नाथ बनर्जी का कथन है कि कभी-कभी वर्तमान की बीमारी का कारण पिछले जन्म में भी हो सकता है। श्रीमती रोजन वर्ग की चिकित्सा इसी तरह हुई। आग को देखते ही थर-थर कांप जाने वाली उक्त महिला का जब कोई भी डाॅक्टर इलाज नहीं कर सका। तब थककर वे मनोचिकित्सक के पास गई। वहां जब उन्हें सम्मोहित कर पूर्वभव की याद कराई  कई, तो रोजन वर्ग ने बताया कि वे पिछले जन्म में जल कर मर गई थीं। अतः उन्हें उसका अनुभव करा कर समझा दिया गया, तो वे बिल्कुल स्वस्थ हो गई। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिकों ने विल्सन कलाउड चेम्बर परीक्षण में चूहे की आत्मा की तस्वीर तक खींची है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि मृत्यु पर चेतना का शरीर से निर्गमन हो जाता है?
सम्पूर्ण विश्व के सभी धर्मो, वर्गों, जातियों एवं समाजों में पुनर्जन्म के सिद्धांतों किसी न किसी रुप में मान्यता प्राप्त है।
अंततः इस कम्प्युटर युग में भी यह स्पष्ट है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत विज्ञान सम्मत है। आधुनिक तकनीकी शब्दावली में पुनर्जन्म के सिद्धांत को इस तरह समझ सकते हैं। आत्मा का अदृश्य कम्प्युटर है और शरीर एक रोबोट है। हम कर्मों के माध्यम से कम्प्युटर में जैसा प्रोग्राम फीड करते हैं वैसा ही फल पाते हैं। कम्प्युटर पुराना रोबोट खराब को जाने पर अपने कर्मों के हिसाब से नया रोबोट बना लेता है।
पुनर्जन्म के विपक्ष में भी अनेक तर्क एवं प्रक्ष खड़े हैं। यह पहेली शब्दों द्वारा नहीं सुलझाई जा सकती है। जीवन के प्रति समग्र सजगता एवं अवधान ही इसका उत्तर दे सकते हैं। संस्कारों की नदी में बढ़ने वाला मन इसे नहीं समझ सकता है।
पुनर्जन्म आज एक धार्मिक सिद्धान्त मात्र नहीं है। इस पर विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों एवं परामनोवैज्ञानिक शोध संस्थानों में ठोस कार्य हुआ है। वर्तमान में यह अंधविश्वास नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्य के रुप में स्वीकारा जा चुका है।
पुनरागमन को प्रमाणित करने वाले अनेक प्रमाण आज विद्यमान हैं। इनमें से सबसे बड़ा प्रमाण ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत है। विज्ञान के सर्वमान्य संरक्षण सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा का किसी भी अवस्था में विनाश नहीं होता है, मात्र ऊर्जा का रुप परिवर्तन हो सकता है। अर्थात जिस प्रकार ऊर्जा नष्ट नहीं होती, वैसे ही चेतना का नाश नहीं हो सकता।चेतना को वैज्ञानिक शब्दावली में ऊर्जा की शुद्धतम अवस्था कह सकते हैं। चेतना सत्ता का मात्र एक शरीर से निकल कर नए शरीर में प्रवेश संभव है। पुनर्जन्म का भी यही सिद्धांत है।
पुनर्जन्म का दूसरा प्रत्यक्ष प्रमाण पूर्वजन्म की स्मुति युक्त बालकों का जन्म लेना है। बालकों के पूर्वजन्म की स्मृति की परीक्षा आजकल दार्शनिक और परामनोवैज्ञानिक करते हैं। पूर्वभव के संस्कारों के बिना मोर्जाट चार वर्ष की अवस्थ्सा में संगीत नहीं कम्पोज कर सकता था। लार्ड मेकाले और विचारक मील चलना सीखने से पूर्व लिखना सीख गए थे। वैज्ञानिक जान गाॅस तब तीन वर्ष का था तभी अपने पिताजी की गणितीय त्रुटियों को ठीक करता था। इससे प्रकट है कि पूर्वभव में ऐसे बालकों को अपने क्षेत्र में विशेष महारत हासिल थी। तभी वर्तमान जीवन में संस्कार मौजूद रहे।
प्रथमतः शिशु जन्म लेते ही रोता है। स्तनपान करने पर चुप हो जाता है। कष्ट में रोना ओर अनुकूल स्थिति में प्रसन्नता प्रकट करता है। शिशु बतख स्वतः तैरना सीख जाती है। इस तरह की घटनाएं हमें विवश करती हैं यह सोचने के लिए कि जीव पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है। वरन नन्हें शिशुओं को कौन सिखाता है?
डाॅ. स्टीवेन्सन ने अपने अनुसंधान के दौरान कुछ ऐसे मामले भी देखे हैं जिसमें व्यक्ति के शरीर पर उसके पूर्वजन्म के चिन्ह मौजूद हैं। यद्यपि आत्मा का रुपान्तरण तो समझ में आता है लेकिन दैहिक चिन्हों का पुनःप्रकटन आज भी एक पहेली है।
डाॅ. हेमेन्द्र नाथ बनर्जी का कथन है कि कभी-कभी वर्तमान की बीमारी का कारण पिछले जन्म में भी हो सकता है। श्रीमती रोजन वर्ग की चिकित्सा इसी तरह हुई। आग को देखते ही थर-थर कांप जाने वाली उक्त महिला का जब कोई भी डाॅक्टर इलाज नहीं कर सका। तब थककर वे मनोचिकित्सक के पास गई। वहां जब उन्हें सम्मोहित कर पूर्वभव की याद कराई  कई, तो रोजन वर्ग ने बताया कि वे पिछले जन्म में जल कर मर गई थीं। अतः उन्हें उसका अनुभव करा कर समझा दिया गया, तो वे बिल्कुल स्वस्थ हो गई। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिकों ने विल्सन कलाउड चेम्बर परीक्षण में चूहे की आत्मा की तस्वीर तक खींची है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि मृत्यु पर चेतना का शरीर से निर्गमन हो जाता है?
सम्पूर्ण विश्व के सभी धर्मो, वर्गों, जातियों एवं समाजों में पुनर्जन्म के सिद्धांतों किसी न किसी रुप में मान्यता प्राप्त है।
अंततः इस कम्प्युटर युग में भी यह स्पष्ट है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत विज्ञान सम्मत है। आधुनिक तकनीकी शब्दावली में पुनर्जन्म के सिद्धांत को इस तरह समझ सकते हैं। आत्मा का अदृश्य कम्प्युटर है और शरीर एक रोबोट है। हम कर्मों के माध्यम से कम्प्युटर में जैसा प्रोग्राम फीड करते हैं वैसा ही फल पाते हैं। कम्प्युटर पुराना रोबोट खराब को जाने पर अपने कर्मों के हिसाब से नया रोबोट बना लेता है।
पुनर्जन्म के विपक्ष में भी अनेक तर्क एवं प्रक्ष खड़े हैं। यह पहेली शब्दों द्वारा नहीं सुलझाई जा सकती है। जीवन के प्रति समग्र सजगता एवं अवधान ही इसका उत्तर दे सकते हैं। संस्कारों की नदी में बढ़ने वाला मन इसे नहीं समझ सकता है।

वैज्ञानिक परिकल्पनाएं

भविष्य का सच आज कि परिकल्पना 
परिकल्पनाएं आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति का आधार हैं. आज का विज्ञान जिन सिद्धांतों पर टिका हुआ है वे सिद्धांत प्रारम्भ में परिकल्पनाओं के रूप में जन्मे थे.

पहली परिकल्पना समय (टाइम) के बारे में है. कुछ विज्ञान कथाओं में टाइम मशीन की संकल्पना मिलती है. जिसमें एक मशीन के सहारे कोई व्यक्ति भूत या भविष्य में पहुँच जाता है. वहां वह उन घटनाओं का अंग बन जाता है, जो उस समय घटित हो रही हैं. प्रश्न उठता है क्या इस तरह की मशीन बनाना संभव है? इसके लिए एक और प्रश्न पर विचार करना होगा. मान लिया कोई व्यक्ति भूतकाल में जाकर अपने दादा की हत्या कर देता है. स्पष्ट है की अब उसका पैदा होना भी असंभव है. लेकिन अगर वह पैदा नहीं होगा तो वर्तमान में उसका अस्तित्व भी नहीं रह जायेगा. यह विरोधाभास सिद्ध करता है की टाइम मशीन का बनना असंभव है. लेकिन अगर हम और गहराई से विचार करें? आइंस्टाइन के द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण के अनुसार पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है.(E=mc2) पदार्थ क्या है? स्पेस में पदार्थ वह आकृति है जो चार विमाओं द्वारा निर्धारित होती है. ये चार विमायें हैं, लम्बाई, चौडाई, गहराई और समय.

दूसरे शब्दों में यदि कोई वस्तु चार विमायें रखती है तो उसे ऊर्जा में बदला जा सकता है. अगर इस ऊर्जा में थोडी कमी करके या बढोत्तरी करके वापस पदार्थ में बदला जाए तो तो उत्पन्न पदार्थ का द्रव्यमान मूल पदार्थ से कम या ज़्यादा होगा. इसी दिशा में यदि विचारों को बढाया जाए तो टाइम मशीन का बनना संभव है. इसके लिए समय को ऊर्जा में बदल कर उस ऊर्जा में कमी या बढोत्तरी करनी होगी. और फ़िर उसे वापस समय में परिवर्तित करना पड़ेगा. उस वक्त वह समय भूत या भविष्य में परिवर्तित हो जायेगा. लेकिन समस्या यह है की कोई वस्तु तभी ऊर्जा में बदल सकती है जब उसमें चारों विमायें हों. जबकि समय मात्र एक विमा है. यहाँ पर यह निष्कर्ष निकल सकता है की समय को वास्तविक ऊर्जा में तो नहीं बदला जा सकता, हाँ काल्पनिक ऊर्जा में ज़रूर बदला जा सकता है. और इस तरह भूत या भविष्य में पहुँचा जा सकता है. लेकिन ठीक उसी प्रकार मानो वहां पहुँचने वाला व्यक्ति कोई सपना देख रहा हो. सपने में ही वह व्यक्ति भूत या भविष्य की घटनाएं देख पायेगा लेकिन उनमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर पायेगा. इस प्रकार उपरोक्त विरोधाभास दूर हो जाता है.

दूसरी परिकल्पना,  जो एंटी मैटर अर्थात प्रति पदार्थ से सम्बंधित हैं. प्रति कणों की खोज बहुत पहले ही हो चुकी है. और अब तक पाजिट्रान, एंटी प्रोटोन जैसे अनेक प्रतिकण खोजे जा चुके हैं. प्रकृति के प्रत्येक मूल कण का एक प्रतिकण अवश्य है. जो संपर्क में आने पर एक दूसरे को नष्ट कर डालते हैं. अगर मूल कणों का प्रति कण अस्तित्वा में है तो प्रति परमाणु, प्रति अणु और फिर प्रति पदार्थ (एंटी मैटर) भी अस्तित्व में होना चाहिये. लेकिन हम अभी तक कहीं भी प्रति पदार्थ के दर्शन नहीं कर सके हैं. क्यों? इसलिए क्योंकि ब्रह्माण्ड में समस्त स्थानों पर पदार्थ का फैलाव है. अगर इस बीच में कोई प्रति पदार्थ अस्तित्व में आएगा तो पदार्थ से टकराकर नष्ट हो जायेगा. इसलिए कोई ऐसा अलग दायेरा होना चाहिये जहाँ केवल प्रति पदार्थ हो, पदार्थ न हो. प्रश्न उठता है वह दायेरा, वह क्षेत्र कहाँ हो सकता है जहाँ प्रति पदार्थ यानी एंटी मैटर हो लेकिन पदार्थ (मैटर) न हो? स्पष्ट है की वह क्षेत्र एक ऐसा पूरक क्षेत्र (complementary Area) होगा जो हमारे इस अन्तरिक्ष से पूरी तरह अलग होगा. अब अन्तरिक्ष क्या है? चार विमाओं लम्बाई, चौडाई, और समय से निरूपित बिन्दुओं का समूह. इन्हीं बिन्दुओं द्बारा हम किसी पदार्थ और उसकी स्थिति को दर्शाते हैं. यहाँ पर हमें निर्देशांक ज्यामिति द्बारा लम्बाई, चौडाई और ऊंचाई तीनों के दो भाग मिलते हैं. धनात्मक (Positive) और ऋणात्मक (Negative) भाग. लेकिन आश्चर्य की बात है की समय का कोई नेगेटिव नहीं मिलता. तो क्या वास्तव में निगेटिव टाइम का कोई अस्तित्व नहीं है? लेकिन यह कैसे संभव है? जबकि ब्रह्माण्ड में हर चीज़ का एक ऋणात्मक भाग अस्तित्व में है. स्पष्ट है की ब्रह्माण्ड में एक ऐसा क्षेत्र हो सकता है जहाँ निगेटिव टाइम अस्तित्व में है. अगर ऐसा क्षेत्र है तो वह इस प्रकार का पूरक क्षेत्र होगा जहाँ तक हमारी या किसी अन्य पदार्थ की पहुँच असंभव होगी. तो फिर वहां क्या होगा? क्या प्रति पदार्थ वहीँ होगा? अगर ऐसा संभव है तो हमारे इस प्रश्न का जवाब मिल गया कि ब्रह्माण्ड में प्रति पदार्थ मौजूद है. जो एक अलग ही क्षेत्र में है. और वहां का समय हमारे समय का ऋणात्मक है. इस कारण इन दो क्षेत्रों का मिलना असंभव है. और इस तरह पदार्थ तथा प्रति पदार्थ अपना अलग अलग अस्तित्व रखते हैं.

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने दुनिया के सबसे शक्तिशली सोफ्ट एक्स रे लेजर की मदद से पारदर्शी एल्यूमिनियम बनाने में सफलता प्राप्त कर ली हैं अब तक ये पारदर्शी एल्यूमिनियम सिर्फ कल्पना मात्र थी जिसका स्टार ट्रेक iv नामक फिल्म में प्रयोग किया गया है। एल्यूमिनियम की ये नई अवस्था खगोलिकी व नाभिकीय संगलन (फ्यूजन) के क्षेत्र नई संभावनायें जगाती है।

अगर मैं कहूं कि कोई एक एल्यूमिनियम शीट के आर-पार देख सकता है तो आप मानेंगे नहीं पर यह सच है, ये कारनामा किया है आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के एक दल ने। नेचर फिजिक्स पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के प्रोफेसर जस्टिन वार्क और उनके सहयोगियो ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली सॉफ्ट एक्स रे फ्लैश लेजर की की शक्तिशाली बीम को जब एल्यूमिनियम सेम्पल में एक मानव बाल के बीसवें हिस्से के बराबर के बिन्दु पर फोक्स किया तो उन्होने पाया कि 40 फेमेटो सेकेण्ड के अति सूक्ष्म समय के लिये ऐसा लगा कि उस स्थान की एल्यूमिनियम अद्श्य हो गई हो। डा वार्क के अनुसार फ्लेश लेजर से निकली शक्तिशाली लेजर किरण पुज ने एल्यूमिनियम के हर परमाणु से एक इलेक्ट्रान बाहर निकाल दिया जिसके फलस्वरूप एल्यूमिनियम की मणिभ (क्रिस्टल) संचरना में तो कोई परिवर्तन नहीं आया पर वह अद्धश्य हो गई। वह अदृश्य इस लिये हुई थी क्योकि वह पारदर्शी हो गई थी।

ज्ञातव्य है कि हैमबर्ग जर्मनी में ये स्थापित ये फ्लैश लेजर, जिसका प्रयोग इस अनुसंधान में किया गया था, अभी तक दुनिया को सबसे तीव्र लेजर है। लेसर उपकरण से निकलने वाला किरण पुंज किसी बड़े शहर के लिये उपयुक्त पावर सप्लाई प्लांट से उत्पन्न विद्युत ऊर्जा से भी ज्यादा शक्तिशाली होता है।

प्रोफेसर जस्टिन वार्क ने बताया, "ये पदार्थ की एकदम नई अवस्था है जिसके बारे में अब तक किसी को कुछ भी पता नहीं है। पदार्थ की इस अवस्था के अध्ययन से हमें ये पता लगा सकेगा कि छोटे-छोटे तारों के निर्माण के समय क्या हुआ होगा और इससे हमें एक दिन नाभिकीय संगलन को समझने व उसका प्रयोग करने में और  अधिक सहायता मिल सकेगी।"
"यद्यपि ये स्थिति करीब 40 मेटो सेकेन्ड के अल्पकाल के लिये ही उत्पन्न हुई थी पर  इससे इतना तो निश्चित हो ही जाता है कि हमने एल्यूमिनियम की नई अवस्था को उत्पन्न किया है

ये थीं कुछ वैज्ञानिक परिकल्पनाएं जो यदि सत्य सिद्ध हो जाएँ तो भौतिक विज्ञान की दुनिया को नई दिशाएँ दे सकती हैं.

आभारः हिन्दी साइंस फिक्शन

रविवार, 30 मई 2010

ऑपरेशन पुनर्जन्म

"डॉ. किरणमाली, अख़बार की सुर्खियों को आपने देखा होगा ?" डॉ मार्तंड विडियोफ़ोन पर बोले।
''हाँ, डॉ मार्तंड हमारा प्रयोग सफल रहा। "किरणमाली ने विडियो फ़ोन पर जवाब दिया।
"यह पुनर्जन्म नहीं है, लेकिन लोग तो इसे पुनर्जन्म ही समझेंगे"
"हाँ, यह तो होना ही था।"
"डॉ. किरणमाली, आखिर पुनर्जन्म और इस घटना में अंतर ही क्या है? ऊपरी तौर पर तो यह पुनर्जन्म की घटना ही दिखाई पड़ती है।"
"हाँ, मार्तंड, पुनर्जन्म की यह घटना स्वाभाविक दिखाई पड़े। यही सही होगा, इससे हमारा प्रयोग गुप्त रह पायेगा।"
"डॉ किरण माली, मैं उस बच्चे को देखने के लिये जा रहा हूँ जिसका पुनर्जन्म हुआ।"
"डॉ. मार्तंड अवश्य जाइये। लौटते वक्त आप उससे हुई मुलाकात का आँखों देखा हाल अवश्य सुनाइए। "
"हाँ, अवश्य। "डॉ. मार्तंड ने विडियो फ़ोन बंद किया तथा अपनी सौर कार में उस शहर की ओर रवाना हो गये जहाँ पुनर्जन्म हुआ था। रास्ते भर डॉ. मार्तंड यही सोंच रहे थे की,किस तरह डॉ. किरणमाली ने तथा उन्होंने एक महान प्रोजेक्ट अपने हाथ में लिया था। प्रारंभ में उन्हें एक क्षीण आशा थी कि वे सफल होंगे। एक महान प्रोजेक्ट से जुडी थी मानवता की भलाई ... । यह खोज विज्ञान जगत में मील का पत्थर साबित होगी।
आप सोच रहे होंगे कि वह प्रोजेक्ट क्या हो सकता है? कैसे मानवता की भलाई इसके साथ जुडी है? कैसे यह एक आश्चर्यजनक खोज है? तो मैं आपको बता ही दूँ की इस प्रोजेक्ट से जुडी है एक महान वैज्ञानिक की खोज ... वह महान वैज्ञानिक थे डॉ. विवस्वान।। एक विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक... एक ऐसी प्रज्ञा जो कई सालों बाद जन्म लेती है ... शायद सदियों बाद ... लेकिन यह मानव जाति का दुर्भाग्य ही कहलायेगा की उनका प्लेन क्रैश हो चुका था। और वे जिंदगी की अंतिम घडियां गिन रहे थे। चिकत्सिकों के द्वारा उन्हें बचाने के भरसक प्रयत्न चल रहे थे। लेकिन उनका बचना नामुनकिन था। एक महान वैज्ञानिक इस संसार से विदा ले रहा था। तो क्या उसकी खोज अधूरी रह जायेगी? सभी वैज्ञानिक हताश थे। अचानक
किरणमाली के मस्तिष्क में एक विचार आया। उन्होंने डॉ. मार्तंड का सहयोग लिया। फिर एक प्रोजेक्ट की रचना हुई। और फिर उन्होंने वह हैरतअंगेज कारनामा कर दिखाया जिसके बारे में दुनियां सपने में भी नहीं सोच सकती थी।ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक विवस्वान एक महान खोज में जुटे हुए थे और वह खोज थी मानवता की जरावस्था से मुक्ति। व्यक्ति यदि वृद्ध नहीं होगा तो वह सौ वर्ष की जगह शायद वह दो सौ वर्ष तक रह सकेगा। उम्र के बढ़ने से उसके अनुसन्धान या अन्य कार्य करने का दायरा बढ़ जायेगा। धरती से वृद्ध व्यक्तियों का लोप पूरी तरह हो जायेगा। इससे मानव जाति अत्यन्त सुन्दर तथा ओजपूर्ण दिखाई पड़ेगी। पृथ्वी पर बुद्धिमत्ता बढ़ने से हो सकता है हम भी ब्रह्माण्ड के उच्च  बुद्धि युक्त प्राणी कहलाने लगे। जरावस्ता का लोप मानव जाति के लिये वरदान साबित होगा। कौन चाहेगा कि उसके चहरे पर झुर्रियां पड़े या उसकी शक्ति क्षीण हो। वैज्ञानिक विवस्वान पूरी तन्मयता के साथ इस खोज में जुटे हुए थे। सारे विश्व कि निगाहें उनकी खोज पर टिकी हुई थी। उनकी प्रयोग शाला विश्व की किसी भी प्रयोगशाला से काम नहीं थी। सुपरकम्पूटर तथा अत्याधुनिक शल्यउपकरण। साथ में थे संवेदनशील रोबोट। प्रयोगशाला में कल्चर्ड जीवाणु से लेकर वनमानुष तक सभी कुछ थे।

डॉ. विवस्वान प्रयोगशाला के कई जंतुओं पर प्रयोग कर चुके थे। लेकिन उन्हें आंशिक सफलता ही प्राप्त हुई थी। डॉ. विवस्वान इस बात से आशान्वित थे कि वे एक दिन अवश्य सफल होंगे। कभी उन्हें लगता कि सफलता उनके मुंह बाये खड़ी है। कभी लगता कि सफलता उनसे अभी कोसों दूर है। लेकिन वे हताश नहीं हुए। जब उन्हें लगता कि सफलता उनके निकट है तो वे फूले नहीं समाते। 

लेकिन दुर्भाग्य ने उनकी सफलता पर दस्तक दे दी। प्लेन क्रेश होने से उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी खोज अधूरी रह गयी। यह मानवता के लिये अपूर्णीय क्षति थी। आप सोच रहे होंगे कि उनकी हर चीज सुपर कंप्यूटर में अंकित हो चुकी होगी और उसका सहारा लेकर वैज्ञानिक आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन क्या मानव का स्थान सुपर कंप्यूटर ले सकता है ? सुपर कम्पूटर की भी एक सीमा होती है। वैज्ञानिक विवस्वान की हर बात तो फीड नहीं की जा सकती थी। उसमे भी शून्य से अनंत तक अनेक गैप होते हैं। माना की अन्य वैज्ञानिक डॉ विवस्वान की इस खोज को आगे बढायेंगे, लेकिन क्या वे सफल होंगे ? इस दिशा में प्रयत्न हुए सदी बीत गयी लेकिन क्या वे सफल हुए ? और फिर विवस्वान जैसी प्रज्ञा तो सदियों में ही जन्म लेती है। भला आइन्स्टीन क्या बार बार जन्म लेते हैं ?

डॉ. विवस्वान के निधन से सारे संसार में शोक की लहर फ़ैल गयी। भारत के दुःख का पारावार नहीं था। वैज्ञानिक विवस्वान के पार्थिव शरीर को जब भारत लाया गया तो डॉ. मार्तंड उनके अंतिम दर्शनों के लिये पहुंचे। उसी रात डॉ. मार्तंड के मस्तिष्क में एक विचित्र विचार आया। हाँ, यह विचार अनोखा था क्योंकि यह सोच से परे था और ऐसा करने का दुस्साहस भी किसी में नहीं था, डॉ. विवस्वान को जीवित रखा जा सकता है, लेकिन उनके शरीर के रूप में नहीं। एक अर्थ में उनकी मृत्यु हो गयी लेकिन दूसरे अर्थ में नहीं।

यह माना जाता है कि किसी की ह्रदय गति रुक जाये तो भी वह व्यक्ति जीवित रह सकता है। केवल ह्रदय ही क्यों, पूरा शरीर भी नष्ट हो जाये तो एक चीज अवश्य जीवित रह सकती है ... वह है मस्तिष्क। ह्रदय के मरने पर भी मस्तिष्क जीवित रह सकता है। हाँ,  इतना अवश्य है कि मस्तिष्क अधिक देर तक जीवित नहीं रहता। इसकी कोशिकाएं तेजी से मरने लगती है। डॉ. विवस्वान के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनकी ह्रदय गति रुक चुकी थी लेकिन मस्तिष्क अभी जीवित था।

लेकिन डॉ. मार्तंड के दिमाग में एक अनोखा विचार था, कि वैज्ञानिक विवस्वान का ह्रदय मर चुका है लेकिन उनका मस्तिष्क अभी जीवित है वैज्ञानिक भाषा में कहें तो उनकी मृत्यु क्लीनिकली अभी नहीं हुई है भले ही वे आम जानता के लिये मृत हो चुके हो। वैज्ञानिक विवस्वान के मस्तिष्क का इस्तेमाल किया जा सकता है। कैसे? इसकी तस्वीर भी डॉ. मार्तंड के दिमाग में स्पष्ट हो गयी वैज्ञानिक विवस्वान को तो जीवित नहीं रखा जा सकता लेकिन उनकी स्मृति को तो जीवित रखा जा सकता है। और यदि उनकी स्मृति को जीवित रखा जा सकता है तो एक अर्थ में उन्हें ही जीवित रखा जा सकता है।
लेकिन विवस्वान के भौतिक शरीर में नहीं। उनकी स्मृति को स्थानांतरित करना होगा, किसी अन्य शरीर में। यानि डॉ. विवस्वान किसी दूसरे के शरीर में ही जीवित रह सकते हैं और यदि किसी अन्य के शरीर में भी उन्हें जीवित रखा जा सकता है तो इससे मानवता का बहुत भला होगा। डॉ. विवस्वान के सपने को साकार किया जा सकेगा। पृथ्वी को अन्ततः जरावस्था से निजात मिल जायेगी।

डॉ। मार्तंड जानते थे प्राणी की स्मृति भी अणुओं के रूप में होती है, और वह विलक्षण अणु है डी. एन. ए.। इसी से स्मृति आर. एन. ए. में स्थानांतरित होती है जो प्रोटीन में चली जाती है। कितना विलक्षण है यह डी. न. ए. का अणु। इसमें संचित है विवस्वान का स्मृति। स्मृति के इस विलक्षण अणु को उनके दक्ष हाथ बड़े आराम से डॉ. विवस्वान के मस्तिष्क से पृथक कर सकते है तथा दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में प्रत्यारोपित भी कर सकते हैं। इससे डॉ. विवास्मन की स्मृति किसी दूसरे व्यक्ति में स्थानांतरित हो जायेगी। जिससे वह व्यक्ति डॉ विवस्वान की तरह ही व्यवहार करने लगेगा। दूसरे शब्दों में वह खुद विवस्वान बन जायेगा। वह अपने आपको विवस्वान कहने लगेगा। फिर वह दिन दूर नहीं होगा जब वह वैज्ञानिक विवस्वान के सपनों को साकार कर सकेगा और मानवता को जरावस्था से निजात दिला सकेगा।

अब जबकि डॉ. मार्तंड के मस्तिष्क में अनोखा विचार उपजा तो उन्हें लगा की उनका एक एक पल कीमती है। ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक डॉ. विवस्वान के मस्तिष्क की कोशिकाएं हर पल क्षीण होती जा रही थी। डॉ. मार्तंड ने वीडियो फ़ोन पर डॉ. किरणमाली से बात की और इससे उपजा 'ऑपरेशन पुनर्जन्म '।

दोनों ने मिलकर यह निश्चय किया कि उनका प्रोजेक्ट गुप्त रहेगा। क्योंकि इस प्रयोग में शत प्रतिशत सफलता की कोई गारंटी नहीं है। प्रयोग की असफलता पर कई तरह के आरोप लग सकते थे। डॉ. मार्तंड तथा किरणमाली दोनों वैज्ञानिक विवस्वान के घनिष्ट मित्र थे। मृत्यु के दो दिन पश्चात् डॉ. विवस्वान का दह संस्कार करना तय किया गया। उनके पार्थिव शरीर को श्रद्धांजलि अर्पित करने हेतु जनताके लिये अगला दिन निश्चित किया गया।

डॉ. मार्तंड तथा डॉ. किरणमाली उसी रात डॉ. विवस्वान के निवासस्थान पहुंचे। डॉ. विवस्वान की प्रयोगशाला  में उनका पार्थिव शरीर ले जाया गया। सुपर कंप्यूटर तथा अन्य उपकरण चालू कर दिये गये। डॉ. विवस्वान के मस्तिष्क के क्रियाकलापों का आरेख होलोग्राम के परदे पर चित्रित हो रहा था, डॉ. मार्तंड तथा डॉ. किरणमाली ई. ई. जी. के परदे पर साफ़ साफ़ देख रहे थे की किस प्रकार मस्तिष्क की कोशिकाएं तेजी से मृत हो रही है। कोशिकाओं का क्रियाकलाप तेजी से बंद होता जा रहा था। डॉ मार्तंड के दक्ष हाथ नैनो टेक्नोलॉजी के सूक्ष्म उपकरणों द्वारा डॉ. विवस्वान के मस्तिष्क के एक विशिष्ट अणु को पृथक करने में कार्यरत हो गये। यह विशिष्ट अणु था डी. एन. ए... एक स्मृति अणु... विलक्षण अणु ...

नैनो टेक्नोलॉजी का ही कमल था कि वे डॉ. विवस्वान के मस्तिष्क के अणु को पृथक कर पाये। नैनो टेक्नोलॉजी अणु के स्तर पर कार्य करती है। इस विलक्षण अणु को डॉ. किरणमाली ने पास ही टेबल पर लेटे हुए एक चार साल के बच्चे में प्रत्यारोपित कर दिया। इस बच्चे कि व्यवस्था उन्होंने कैसे की, यह तो वे दोनों ही जानते थे लेकिन यह कार्य भी अत्यन्त गुप्त था। बच्चे को उसके माता -पिता को पुनः सौंप दिया गया। वे उसे अपने कस्बे में ले गये।
इस ऑपरेशन की सफलता से डॉ. मार्तंड तथा डॉ. किरणमाली दोनों के चेहरे पर मुस्कराहट खिल आई। ऑपरेशन पुनर्जन्म सफल हो चुका था। यह एक हैरतअंगेज कारनामा था ... । महान वैज्ञानिक डॉ. विवस्वान भले ही इस दुनिया में नहीं रहे हों लेकिन उनकी स्मृति दूर किसी बालक में संचित थी। किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई की दुनिया में एक हैरतअंगेज कारनामा हो गया और वह भी डॉ. मार्तंड तथा डॉ. किरणमाली के हाथों।

लेकिन तभी बच्चे के पुनर्जन्म की घटना चारोंओर फ़ैल गयी। लोगों ने इसे सामान्य पुनर्जन्म ही समझा। पुनर्जन्म की इस घटना का समाचार डॉ. मार्तंड के पास भी पहुंचा। दूर दूर से लोग बच्चे से मिलने उसके कस्बे में आ रहे थे। अनेक परामनोवैज्ञानिक भी वहां पहुंचे। डॉ. मार्तंड  मन ही मन मुस्करा रहे थे। वे जानते थे कि वह कोई पुनर्जन्म नहीं था बल्कि किया गया था।

डॉ. मार्तंड भी अपनी सौर कार से चल पड़े। उनकी सौर कार अब छोटे से कस्बे कि ओर बढ़ रही थी। जब वे कस्बे के निकट पहुंचे तो उन्होंने पाया कि हर किसी कि जुबान पर बच्चे के पुनर्जन्म कि घटना कि चर्चा थी। चाय की दुकान,रेस्तरां बाज़ार, घर- घर, गली- गली सभी जगह। समाचार पत्र की सुर्खियों तथा चेनलों तथा इन्टरनेट ने तो पूरे विश्व भर में इसे चर्चा का विषय बना दिया था। जब डॉ. मार्तंड बच्चे के निवास स्थल पहुंचे तो वहां दूर दूर से आने वालों का ताँता लगा हुआ था। इसके अतिरिक्त विश्व भर के परामनोवैज्ञानिकों का जमघट लगा हुआ था

बच्चे का नाम सचिन था। उसका जन्म एक गरीब कृषक परिवार में हुआ था। पिता खेती- बाड़ी करते थे। सचिन एक प्राथमिक शाला में पढता था। लेकिन मंद बुद्धि बालक था। एक दिन क्रिकेट खेलते हुए अचानक उसे गहरी चोट लगी। असहाय माता पिता सचिन को लेकर अस्पताल पहुंचे जहाँ चिकित्सकों ने उसे डॉ. मार्तंड तथा डॉ. किरणमाली के हवाले कर दिया।

लेकिन अब एक करिश्मा हो गया। जबसे वह अस्पताल से आया स्कूल में वह एक होनहार छात्र की तरह व्यवहार करने लगा। कहाँ उसे अंग्रेजी के शब्दों में भी कठिनाई होती थी। कहाँ अब वह पूरा का पूरा अध्याय एक बार पढ़कर बिना देखे ज्यों का त्यों दोहरा देता था। कक्षा में गणित के सवाल उसे अब बचकाने लगते। विज्ञान के अध्यायों को तो वह बदलने की सलाह देता। अध्यापकों से वह एक होनहार छात्र की तरह व्यवहार करता । अध्यापक उसकी विलक्षण प्रतिभा के आगे नत- मस्तक थे।

वह छोटी सी उम्र में ही पुस्तकालय में रखे हुए वृहत विश्वकोश पढने लगा था। अध्यापकों से वह वैज्ञानिक प्रयोगों से सम्बंधित पुस्तके बताने के लिये कहता। पूरे कस्बे में उसके विलक्षण व्यवहार की चर्चा थी और जिस बात ने उसे देश के कोने कोने में यहाँ तक कि विदेशों में भी चर्चा का विषय बना दिया था , वह यह थी कि वह स्वयं को डॉ. विवस्वान कहता था। वह अपने माता माता पिता से डॉ विवस्वान के निवास स्थल ले चलने कीजिद करने लगा। उसने अपने पिता को वैज्ञानिक विवस्वान के निवास स्थल का पूरा नक्शा समझाया। उसने डॉ विवस्वान की प्रयोगशाला का हूबहू वर्णन किया। उसने बताया कि उनकी प्रयोगशाला में किस किस तरह के उपकरण कहाँ कहाँ स्थित है। उसने कुछ ऐसी कागचों तथा फाइलों का भी जिक्र किया जिसे केवल विवस्वान ही जानते थे।

सचिन अपने कृषक माता पिता को माता पिता मानने को तैयार नहीं था। वह तो केवल डॉ. विवस्वान के माता पिता को ही अपने माता पिता समझता था। उसने बताया कि उसके एक पत्नी ओर दो बच्चियां है। बड़ी बच्ची न्यूयॉर्क में अध्ययन कर रही है। तथा छोटी बच्ची रूस में अन्तरिक्ष पायलेट की ट्रेनिंग ले रही है उसका इरादा भारत आने पर शटल उडाने का है। वह अन्तरिक्ष स्टेशन से शटल को मंगल तथा अन्य ग्रहों पर ले जाना चाहती है। अब भी ये यात्राएं जोखिम भरी थी। सचिन ने बताया कि दूर होते हुए भी वह अपने माता पिता से बराबर सम्पर्क रखतीथी कितना चाहती थी वह अपने पापा को यानी डॉ. विवस्वान को। उसने विवस्वान की पत्नी तथा बच्चों के साथ घटित कई संस्मरण सुनाये जो केवल डॉ. विवस्वान को ही ज्ञात थे। सचिन ने बताया की डॉ विवस्वान एक अत्याधुनिक कंप्यूटर कार'नोवेट' चलाते थे। उसे विवस्वान के निवासस्थल के तथा कार के नंबर भी ज्ञात थे। उसने डॉ विवस्वान ने जिस कुत्ते को पाल रखा था, उसका नाम, उसकी किस्म तथा उसके व्यवहार का भी जिक्र किया।

सचिन ने बताया कि वह कभी भी क़स्बा छोड़ कार बाहर नहीं गया। न ही उस छोटे से कस्बे में उसे कोई जनता था। घटना  के कुछ दिनों बाद जब डॉ. विवस्वान कि पत्नी को वहां लाया गया तो घर के बाहर आम जनता की भीड़ उमड़ी हुई थी कई समाचार पत्रों के संपादक तथा परामनोवैज्ञानिक वहां उपस्थित थे। सचिन अपनी पत्नी को देखते ही पहचान गया। कि वह उसी की पत्नी है। उसने कई ऐसी अन्तरंग बातें बताई जिनसे डॉ विवस्वान की पत्नी को यह स्वीकार करना पड़ा कि बालक ठीक कह रहा है।

सचिन डॉ विवस्वान कीपत्नी से उसके घर ले चलने की जिद करने लगा। परावैज्ञानिकों को यह पूरा विश्वास हो गया कि बालक का पुनर्जन्म हुआ है।
डॉ. मार्तंड ने सचिन से काफी देर तक बातचीत की। उन्हें भी पूरी तरह विश्वास हो गया था कि बालक का पुनर्जन्म हुआ है। लेकिन यह प्राकृतिक पुनर्जन्म नहीं था। यह तो डॉ. किरणमाली तथा उनके प्रयासों का सुफ़ल था। 'ऑपरेशन पुनर्जन्म' सफल हो चुका था।

लेकिन उन्होंने किसी से भी इसकी चर्चा नहीं की।

सचिन उन्हें डॉ. विवस्वान के घर ले चलने की जिद जरने लगा। सचिन के माँ बाप के लिये अब सचिन की कोई उपयोगिता नहीं रही थी। सचिन हाड़ -मांस का तो वही था लेकिन वह दिमागी तौर पर एक विचित्र व्यक्तित्व अख्त्यार कर चुकाथा। उधर  डॉ. विवस्वान की पत्नी भी उसे अपनाने से इंकार कर रही थी। डॉ. मार्तंड ने ऐसी परिस्थिति में सचिन के कृषक माता पिता से अनुनय -विनय कर वह बालक प्राप्त कर लिया। अब डॉ. किरणमाली तथा डॉ. मार्तंड के सानिध्य में बालक बड़ा होने लगा। वह अब किसी विवस्वान से कम नहीं था। वह डॉ. विवस्वान बन चुका था। वह दिनरात अपनी प्रयोगशाला में अधूरी खोज को पूरा करने में जुट गया। और फिर वह दिन भी आया जब इस दूसरे विवस्वान ने जरावस्था पर विजय पाई। सारी दुनिया में आश्चर्य की लहर दौड़ गई। इस हैरतअंगेज कारनामे की चर्चा कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेती। धरती माँ भी यह सोच -सोच कर मुस्करा रही थी की अब उसकी खूबसूरती में चार चाँद लग जायेंगे क्योंकि अब धरती पर कोई और वृद्ध नहीं होगा।

-- हरीश गोयल

गुरुवार, 27 मई 2010

साठ हजार वर्ष का जीवन ?

पृ्थ्वी लोक पर साठ हजार वर्ष का जीवन ?

केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण संसार के प्रति हमारी मान्यताएं सापेक्षता के सिद्धान्त पर अवलम्बित हैं। दिशा का नाम लेते ही झट से पूर्व,पश्चिम,उतर,दक्षिण दिशाओं का बोध होने लगता है। धरातल को आधार मानकर ही दिशा की कल्पना की जाती है और धरातल की कल्पना भी आपेक्षिक स्थिति पर निर्भर करती है। यदि अनन्त अन्तरिक्ष में अपने(पृ्थ्वी) को एक बिन्दु मान लिया जाए तथा धरातल नाम की किसी वस्तु की पूर्व मान्यता न बनाई जाए तो पूर्व,पश्चिम,उतर,दक्षिण इत्यादि किसी भी दिशा का निर्धारण कर पाना भी बिल्कुल ही असंभव होगा। आप एक कल्पना कीजिए कि पृ्थ्वी का गोला स्वयं आकाश मंडल में घूमता हुआ दिशाओं की खोज करना चाहे तो उसके लिए किसी दिशा का पता लगा पाना कैसे संभव होगा ? कहने का मतलब ये कि दिशाओं का पता लगा पाना तभी संभव है जब अनन्त बिन्दुओं से बने किसी धरातल को आधार माना जाए।

काल शब्द से एक निश्चित "समय" का बोध होता है। किन्तु समय की सीमा में काल को नहीं बांधा जा सकता। "काल" अनन्त है। सिर्फ अपनी मान्यता के अनुरूप ही हम उसे समय की एक निश्चित सीमा में बाँधने का प्रयत्न करते हैं। सृ्ष्टि अनेकों बार रची गई, नष्ट हुई लेकिन काल का कभी अन्त नहीं हुआ। पृ्थ्वी पर चौबीस घण्टे का एक दिन-रात होता है लेकिन शायद आदिकाल में स्थिति कुछ ओर ही थी। भूगर्भशास्त्रियों का मत है कि जब तक पृ्थ्वी पूरी तरह से ठंडी नही हुई थी, आग्नेय दशा में भी तब तक पृ्थ्वी के विभिन्न भागों में दिन रात सिर्फ दो घण्टे का ही हुआ करता था। अब सूर्य के उदय अस्त होने से ही हमें दिन रात का ज्ञान होता है। उसकी गति को आधार मानकर ही हम समय की गणना करते हैं। किन्तु यदि आधार सूर्य को न मानकर किसी अन्य ग्रह अथवा किसी ब्राह्मंड के किसी अन्य पिंड को मान लिया जाए तो हमारी मान्यताओं में बडा भारी अन्तर आ जाएगा। यदि शनि ग्रह को आधार मान लिया जाए तो हमारा एक वर्ष होगा तीस वर्षों के बराबर। इसी प्रकार यदि बृ्हस्पति ग्रह् को आधार मान लें तो यही साल बारह वर्षों के बराबर हो जाएगा। काल की गणना सूर्य की गति सापेक्ष की जाती है। अगर सापेक्षता का आधार बदल दिया जाए तो काल की सम्पूर्ण अवधारणा ही बदल जाएगी।
नेप्चयून ग्रह का एक वर्ष हमारी इस पृ्थ्वी के 180 वर्षों के बराबर है। यदि वहाँ जीवन की कल्पना की जाए तो वहाँ का छ: महीने का बच्चा यहाँ पृ्थ्वी के नब्बे वर्ष के बुजुर्ग के बराबर होगा। उस ग्रह के 100 वर्ष के बुजुर्ग की आयु यहाँ पृ्थ्वी की गणना के अनुसार 18000 वर्ष होगी। बाल्मीकी रामायण में एक प्रसंग आता है कि यज्ञ की रक्षा के लिए जब विश्वामित्र राजा दशरथ के पास राम,लक्षमण को लेने पहुँचे तो पुत्रों के प्रति अपनी संवेदना प्रदर्शित करते हुए राजा दशरथ कहने लगे कि " हे कौशिक्! साठ हजार वर्ष का जब मैं हो गया तो तब जाकर मुझे इन पुत्रों की प्राप्ति हुई (षष्ठि वर्ष सहस्त्राणि जातस्य मम कौशिक)"। अब यदि कोई पश्चिम मुखापेक्षी तर्कवादी या कोई विधर्मी इसे पढे तो यही कहेगा कि हिन्दु धर्म ग्रन्थों में कितनी बकवास बातें लिखी हुई हैं। भला ऎसा भी कभी हो सकता है कि किसी की आयु साठ हजार वर्ष हो! ग्रन्थ नहीं बल्कि ये तो झूठ के पुलिन्दे हैं।
अब उनकी बात भी सही है, क्यों कि पृ्थ्वी लोक पर साठ हजार वर्ष का जीवन तो बिल्कुल अकल्पनीय ही लगता है। लेकिन यदि नेप्चयून ग्रह के मान से गणना की जाए तो यहाँ के सवा तीन सौ वर्ष से कुछ अधिक होंगें। यदि किसी अन्य तारे/पिंड को आधार मानें तो साठ हजार वर्ष वहाँ के तीस चालीस वर्ष हो सकते हैं । सम्भव है काल की गणना उस रामायण काल में किसी अन्य ग्रह के सापेक्ष होती हो।
यह विश्व अनन्त है। ऎसे पिंड भी सृ्ष्टि में हो सकते हैं जिनके वर्ष का मान हमारी अपेक्षा इतना बडा हो कि हमारा एक कल्प(चारों युगों का कुलमान) उस पिण्ड के एक दिन के समान हो। ऎसी स्थिति में वो पिण्ड शास्त्रों में वर्णित "सत्यलोक", "शिवलोक","विष्णुलोक" अथवा "ब्रह्मलोक" भी तो हो सकता है। क्या नहीं हो सकता ?....................पं. डी. के. शर्मा

साधना की शक्ति

!! साधना की शक्ति !! 

कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। प्रत्येक युग में मनुष्य नें अपनी आवश्यकताओं तथा जिज्ञासा को आधार बनाकर अध्ययन और नवीन खोजें की हैं। इन सभी कार्यों को करने के लिए चाहिए---साधना। किसी भी मन चाहे उपयोगी कार्य को पूरा कर लेने की क्षमता प्राप्त कर लेना ही सिद्धि कहलाता है। सिद्धि शब्द अकेला नहीं है,साधना शब्द इसके साथ ही अभिन्न रूप से जुडा हुआ है। सभी प्रकार की सिद्धियाँ साधनाओं का ही परिणाम हैं। बिना साधना के किसी प्रकार की सिद्धि सम्भव नहीं। सिद्धियाँ और सिद्ध पुरूष दोनों ही ठोस वास्तविकता है। इस संसार में सभी युगों में सिद्ध पुरूष हुए हैं। वे प्राचीन काल में भी थे और वर्तमान काल में भी हैं। सिद्ध पुरूषों की कृ्पा तथा प्रेरणा से प्राचीनकाल में भी चमत्कारी घटनाएं घटती थी और वर्तमान में भी घटती हैं। उस युग में इस प्रकार के प्रसंगों की बहुलता थी तो आधुनिक काल में अभाव है लेकिन शून्यता की स्थिति फिर भी नहीं है। सिद्ध पुरूष हैं भले ही उनकी संख्या कम हो। इसका कारण मात्र इतना है कि वर्तमान युग भौतिकवादी,कालवादी,यान्त्रिक और मात्र बुद्धिवादी है जब कि प्राचीन युग आज की भांती न तो भौतिकवादी था,न कालवादी, न यान्त्रिक ओर न ही वर्तमान जैसी आत्मशक्ति का अभाव था। आज के युग में जब कि विज्ञान की सार्वभौम सत्ता स्थापित हो चुकी है फिर भी विश्व के सभी राष्ट्र सिद्धियों,सिद्धपुरूषों,पराभौतिक शक्तियों एवं ईश्वरीय विधान में पूर्ण विश्वास रखते हैं । अनेकों ऎसे रहस्य जिनका अब तक वैज्ञानिक विश्लेषण संभव नहीं हो सका है,फिर भी उनके प्रति सामान्य जन से लेकर वैज्ञानिकों तक आस्था एवं विश्वास का वातावरण बना हुआ है। इसका कारण सिद्धियों की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता ही है।
कभी कभी किसी व्यक्ति को जन्मजात ही बिना किसी प्रयास या साधना के ही सिद्ध पुरूष की क्षमता से सम्पन देखा गया है। इस विषय में आधुनिक विज्ञान नें पूर्णत: चुप्पी साध रखी है यधपि विश्लेषण प्रयासों में इन्होने कोई कमी नहीं रखी। इस विषय में इजराइल के एक युवक यूरी गैलर का उदाहरण यहाँ देना चाहूँगा । किसी भी धातु की बनी छड,चम्मच,चाबी या अन्य किसी भी प्रकार की वस्तु पर वह जैसे ही दृ्ष्टिपात करता है,दृ्ष्टिकेन्द्र्ति वे वस्तुएं स्वयं ही मुडने लगती हैं। संसार की अनेक प्रयोगशालाओं में गैलर की इस क्षमता को जाँचा परखा गया लेकिन वैज्ञानिक उसकी इस शक्ति का रहस्य समझ सकने में असमर्थ हैं।
अमेरिकी अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों नें "निटीमोल" नामक मिश्रित धातु का आविष्कार उपग्रहों की एन्टीना बनाने के लिए किया था । इस मिश्र धातु की सबसे बडी विशेषता है कि इससे  बनी कोई भी वस्तु को चाहे जितना मर्जी तोडा,मोडा या मरोडा जाए किन्तु वो पुन: अपने उसी रूप में आ जाती है। जब इसके आविष्कारक एल्डन वायर्ड ने निटीमोल का तार अपने हाथ में लेकर इसकी विशेषताएं यूरी गैलर को समझाई तो गैलर को भी लगा कि इस पर उसका दृ्ष्टिप्रभाव काम नहीं करेगा। लेकिन आश्चर्य कि तार पर गैलर के दृ्ष्टि केन्द्रित करते ही उसमें बल पडने लगे और वह ऎंठने लगा। थोडी देर में ही देखा गया कि तार में बल पडने से एक स्थान पर गूमड सा उभर आया है। वैज्ञानिकों नें निटिमोल की उस तार में पडे गूमड को ठीक करने में ऎडी चोटी का जोर लगा डाला लेकिन उन्हे लेशमात्र भी सफलता नहीं मिली। इस प्रकार निटीमोल की विशेषता को एक चुनौती देने और उसके गुणधर्म को असत्य प्रमाणित करने वाली स्थिति से वैज्ञानिक आज तक आश्चर्यचकित हैं। है किसी पाश्चात्य बुद्धि के पास इस बात का जवाब कि केवल दृ्ष्टिपात से ही किसी पदार्थ के गुणधर्म कैसे बदल गये?
प्राचीनकाल के भारतीय यौगियों के ऎसे और इनसे भी बडे प्रदर्शनों को आज हम विश्वसनीय नहीं मानते किन्तु वर्तमान युग के इन चमत्कारों को हम क्या कहेंगे, जिनकी व्याख्या विज्ञान भी नहीं कर पा रहा है।
इस प्रकार की अनेक सिद्धियाँ हैं जो मनुष्य अपनी साधना तथा पूर्वजन्म के संस्कारों के बल पर प्राप्त कर सकता है। विश्वास,पूर्ण एकाग्रता और प्रयास ऎसी शक्तियाँ हैं जिनके बल पर असंभव को भी संभव किया जा सकता है।..................पं. डी. के. शर्मा

मै भी ज्योतिषी


!! स्वयं जान सकते है,कैसा ब्यतीत होगा आप का दिन !!
क्सर जीवन में कुछ चीजें ऎसी देखने को मिल ही जाती हैं जो कि प्रथम दृ्ष्टया तो कुछ तर्कसंगत प्रतीत नहीं होती लेकिन यदि उन्हे प्रायोगिक तौर पर परखने का अवसर मिले तो उनमें कहीं न कहीं कुछ ऎसी सच्चाई, कुछ ऎसी सुसंगति दिखाई पड जाती है कि इन्सान स्वयं को हतप्रभ सा अनुभव करने लगता है। आज आप लोगों के सामने भी एक ऎसी ही विधि रखने जा रहा हूँ, जिसे पढकर शायद आपकी पहली प्रतिक्रिया यही होगी कि क्या बकवास लिखा है! ऎसा कुछ नहीं हो सकता। लेकिन जो इस ब्लाग के नियमित पाठक हैं वो इस तथ्य और मेरे उदेश्य दोनों से भली भान्ती परिचित हैं कि यहाँ किसी भी लेख में आपको न तो कल्पना का समावेश मिलेगा और न ही शब्दों के जरिए निराधार,असत्य,अन्धविश्वास या पाखंड को ढंकने का अनर्थक प्रयास। अपितु हमारा तो एकमात्र यही उदेश्य रहा है कि सत्य को उसके मूल रूप में सामने लाया जाए फिर चाहे वो सत्य कितना भी कडुवा या वीभस्त क्यों न हो।

अत: जो पाठक जल्दी में, बिना आजमाए केवल पढ कर ही इस पोस्ट के विषय में अपना निर्णय देना चाहेंगें, उनका अनुमान बहुत हद तक भ्रमपूर्ण हो सकता है। आशा है जिज्ञासु तत्वांवेषी पाठक इस पोस्ट को भी उसी भाव से स्वीकारेंगें, जैसा कि वो हमारे पूर्व के लेखों को स्वीकार करते रहे हैं। हाँ इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि निर्णय देने के अधिकारी आप तभी हो सकते हैं, जब कि आप स्वयं परीक्षा करके सही गलत रूपी किसी अन्तिम निष्कर्ष तक पहुँच चुके हों।
खैर...हम आपको एक ऎसी विधि के बारे में बताना चाह रहे थे कि जिसके जरिए आप स्वयं प्रतिदिन अपने दिन के फल के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि आपका आज का दिन कैसा व्यतीत होगा। वो भी बिना किसी ग्रह, राशी अथवा ज्योतिष की जानकारी के।जिसमें कि आपको शत-प्रतिशत सच्चाई मिलेगी। आप एकबार स्वयं आजमा कर देखिए और फिर उसके बाद निसंकोच होकर बताईयेगा कि आपका क्या अनुभव रहा।
विधि यह है कि आप प्रतिदिन प्रात:काल स्नान इत्यादि के पश्चात बासी मुँह किसी कागज पर 108 के अन्दर कोई भी एक संख्या मन में सोच कर लिख लीजिए। फिर उसमें 35 जोड दीजिए और जिस दिन-वार की संख्या को उसमें से घटा दीजिए, फिर 21 से भाग दे दीजिए-----जो शेष बचे उसका फल यहाँ पर देख लीजिए।
दिन-वार की संख्या इस प्रकार है----रविवार 5, सोमवार 1, मंगलवार 3, बुधवार 4, बृ्हस्पतिवार 11, शुक्रवार 7 और शनिवार 13।
उदाहरणस्वरूप जैसे कि आज बृ्हस्पतिवार का दिन है ओर मैंने प्रश्न करने का विचार करके मन में सोचकर कागज पर 96 की संख्या लिख दी, अब उसमें 35 जोडे तो योगफल 131(96+35) हो गया। फिर इसमें से बृ्हस्पतिवार के दिन की संख्या 11 घटाकर 21 से भाग दिया तो शेष बचा 15। अब आगे 15 नम्बर की संख्या का फल देखा तो यह मिला---"परेशानी और खर्च ज्यादा होगा" । इसी प्रकार आप प्रतिदिन का देखें किन्तु ध्यान रहे कि एक व्यक्ति सिर्फ एक ही बार देखे। ऎसा न हो कि पहली बार में आपको कुछ अशुभ फल मिले तो आप दूसरी बार फिर से ट्राई करने की सोचने लगें कि शायद अब अच्छा फल मिल जाए।
संख्या का फल:-
1. किसी अच्छे सज्जन व्यक्ति का दर्शन पाकर लाभ होगा।
2. मन में भान्ती भान्ती के विचार उठेंगें, कार्य पूर्ण होगा।
3. दिन अच्छा व्यतीत होगा।
4. आज का दिन चिन्ता व्यथा में ही गुजरेगा।
5. अन्य दिनों की अपेक्षा आज दौड धूप अधिक करनी पडेगी, लाभ होगा।
6. सुख और प्रसन्नता के साथ दिन बीतेगा।
7. कोई गुप्त चिन्ता सताएगी, नुक्सान होगा।
8. आज दिन भर आप चिन्तित रहेंगें, रात को नींद भी नहीं आएगी।
9. आज खर्च अधिक करना पडेगा, लाभ कम रहेगा।
10.चिन्ता, व्यथा और परिवार के लोग परेशान करेंगें।
11. जिस काम को सोचोगे, पूरा होगा।
12. काम सफल होगा, मन में आशा का संचार होगा।
13. झगडा-झंझट और चिन्तायुक्त दिन व्यतीत होगा।
14. इज्जत-मान और धन का लाभ होगा।
15.मानसिक परेशानी और खर्च अधिक होगा।
16.बढिया व्यतीत होगा।
17. बेहद खराब गुजरेगा।
18. सुख-शान्ती से व्यतीत होगा।
19.चिन्तित रहना पडेगा।
20.सारा दिन शुभ और लाभयुक्त बीतेगा।
21.अथवा 0 शेष रहने पर पैसे की चिन्ता सताएगी।
पुन: एक बार फिर से कहना चाहूँगा कि हालांकि इस विधि का मूल वैदिक ज्योतिष विद्या से कोई सम्बंध सरोकार नहीं है। बहुत साल पहले ये विधि हमें एक प्राचीन ग्रन्थ की भाषा टीका में पढने को मिली थी। अमूमन मैं ऎसी किसी भी चीज को निरी बकवास की श्रेणी में रखने वाला इन्सान हूँ। लेकिन न जाने मन की किस भावना के कारण एकबार इसे आजमा बैठा तो परिणाम एकदम सत्य निकला। सोचा कि शायद संयोग हो, उसके बाद फिर से दुबारा, तिबारा यानि कि सैंकडों बार आजमाने के बाद भी परिणाम हमेशा शत प्रतिशत खरा ही निकला। हालांकि इस पोस्ट को लिखने में मुझे अत्यधिक संकोच का अनुभव हो रहा है और इसके पीछे के कारण को भी मैं जानता हूँ ,लेकिन जो सामने है तो फिर उसे तो झुठलाया भी नहीं जा सकता। इसलिए कहता हूँ कि आप स्वयं आजमा कर देखिए और फिर बिना किसी संकोच के अवश्य बताईयेगा कि परिणाम क्या निकला.......... पं. डी. के. शर्मा

मंगलवार, 25 मई 2010

पुनर्जन्म

!! पुनर्जन्म होता है !!

किसी भी प्राणी की मृ्त्यु के पश्चात भी क्या कुछ ऎसा है,जो कि शेष रह जाता है? इसी सहज जिज्ञासा से जुडा हुआ है--पुनर्जन्म का रहस्य।  भारत सहित विश्व के कईं देशों में बहुत बार ऎसा हुआ है कि जब किसी व्यक्ति ने अपने पूर्वजन्म के बारे में सब कुछ ठीक ठीक बतलाया है। जिसमें उसने अपने माता-पिता,सगे संबंधियों के नाम तक बता दिये हैं,जिनसे कि वह अपने इस जन्म में कभी भी नहीं मिला। अपने रहन सहन व दिनचर्या के बारे में उसने जो भी बताया, उसे उसके पूर्वजन्म के पारिवारिक सदस्यों नें स्वीकार किया है। वैज्ञानिक और विशेष तौर से परावैज्ञानिक इस विषय में लगभग एकमत हैं कि पूर्वजन्म की घटनाओं का विवरण देने वाले तमाम उदाहरण सही ओर खरे हैं---मगर इस प्रकार के उदाहरणों के आधार पर यह स्वीकार करना शायद ठीक होगा कि पुनर्जन्म एक सार्वभौमिक सिद्धान्त अथवा प्रकृ्ति की अब तक न समझ पाई गई कार्यनिधि का हिस्सा है। इसलिए आज के वैज्ञानिकों के लिए ये पहेली बनी हुई है कि आखिर ये दोबारा से जन्म लेने का रहस्य क्या है? परन्तु इस प्रकार के सारगर्भित प्रश्नों को यदि इस सृ्ष्टि में कभी सबसे पहले कहीं पूछा गया है तो वो हैं---इस भारतभूमी पर रचे गये वेद और उपनिषद। मानव मन में उमडने वाले इस प्रकार के ही अन्य असंख्य प्रश्नों के जवाब हमारे पूर्वज हमें सौंप गये हैं,जिनमें से आज एक एक करके वो जवाब हमें वैज्ञानिक रूप में मिल रहे हैं।
उदाहरण के लिए श्वेतांबर उपनिषद में प्रश्न आता है कि "मन की चंचलता का क्या कारण है?"
वृ्हदारण्यक उपनिषद का यह प्रश्न कि "जीव जब निद्रावस्था में होता है तो बुद्धि कहाँ चली जाती है?"। केनोपनिषद का यह प्रश्न कि "मनुष्य किसकी इच्छा से बोलता है", या फिर ये प्रश्न कि "क्या मृ्त्यु के पश्चात भी कुछ ऎसा है! जो कि बचा रह जाता है?" उपनिषदों से जन्मी यह भारतीय दृ्ष्टि कालांतर में अद्वैत वेदांत तक आते आते एक व्याप्त स्थापना के रूप में फलित होती गई।
अद्वैत वेदांत अनुसार कि "ब्रह्म सदैव विकासशील रहता है" । आधुनिक युग में इस स्थापना की सर्वप्रथम पुष्टि हुई आईंस्टीन के इस कथन द्वारा कि "यूनिवर्स निरन्तर प्रगति पर है"।
वेदांत में जिस शब्द का सबसे अधिक प्रयोग किया गया है---वो है "माया"। यूँ तो इस शब्द से हम सभी लोग भलीभांती परिचित हैं,किन्तु इसके वास्तविक स्वरूप से हम लोग नितांत अपरिचित हैं। 
आईये वेदांत की दृ्ष्टि से माया और पुनर्जन्म के इस रहस्य को समझने का थोडा प्रयास किया जाए। वेदांत कहता है कि "माया" परमसत्ता की एक बीजशक्ति है,जिसके अनेक नाम और रूप हैं।जिस प्रकार से आप उष्मा(Heat) को अग्नि से अलग नहीं कर सकते ठीक उसी प्रकार से माया भी ब्रह्मतत्व(प्रकृ्ति) से भिन्न नहीं है। इसके तीन गुण हैं---सत्त,रज और तम।अकाश,वायु,अग्नि,जल,पृ्थ्वी इन पाँचों तत्वों के द्वारा किसी नवीन उत्पति की क्रिया में यही तीन गुण माया द्वारा क्रियाशील रहते हैं।
इन पाँचों तत्वों में जब सात्विक अंश( सत्त) की प्रधानता रहती है तो आकाश से श्रोत(शब्द),वायु से स्पर्श,अग्नि से नेत्र,जल से जिव्हा और पृ्थ्वी से घ्राण(गंध) नाम वाली पाँच ज्ञानेण्द्रियाँ निर्मित होती हैं। इन्ही से बुद्धि,मन,चित्त और अहंकार जैसी मानसिक कृ्तियां उत्पन होती हैं। जिनमें ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों का प्रेरक बनता है--मन।
इन्ही पाचों तत्वों से निर्मित हमारी इस स्थूल देह का नाम है--अन्नमय कोश जो कि मृ्त्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। शरीर में स्थित पाँच वायु और पाँच कर्मेंन्द्रियों के योग का नाम है---प्राणमय कोष। पाँचों ज्ञानेण्द्रियों के योग को कहा गया है---मनोमय कोष तथा बुद्धितत्व युक्त पंच ज्ञानेंद्रियों को विज्ञानमय कोष। अंतिम कोश सत्वगुणी अविद्या से संचालित आनंदमय कोष है,लेकिन आत्मा जो है वो इन सब से एक अलग सत्ता है।
वैदिक दृ्ष्टि के अनुसार मृ्त्यु के पश्चात भी न मरने वाला सूक्ष्म शरीर पाँच ज्ञानेन्द्रियों,पाँच कर्मेंद्रियों, पाँच प्राण, एक मन  और एक बुद्धि के योग से बना है। यही वह सूक्ष्म शरीर है जो कि प्रारब्ध और संचित कर्मों के कारण मृ्त्यु पश्चात बार बार जन्म लेता है।
ऎसा नहीं है कि सूक्ष्म शरीर की ये अवधारणा सिर्फ भारतीय है बल्कि "Egyptian Book of the Dead "   में भी सूक्ष्म शरीर के बारे में विचार प्रकट किए गए हैं।
आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के डा. सेसिल ने भी प्रयोगों के आधार पर एक निष्कर्ष निकाला था कि स्थूल शरीर के समानान्तर किसी एक सूक्ष्म शरीर की सत्ता है,जो कि सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों के बावजूद कभी कभी शरीर को छोडकर दूर चली जाती है,हालांकि एक सुनहले रंग के सूक्ष्म तंतु(तार) के माध्यम से ये हर हाल में हमारे इस स्थूल शरीर की नाभी से जुडी रहती है। जब कभी यह सुनहला तंतु (तार) किसी कारणवश टूट जाता है तो उस सूक्ष्म सत्ता का स्थूल शरीर से फिर कोई संबंध नहीं रह जाता और यही किसी व्यक्ति की आकस्मिक मृ्त्यु का कारण बनता है।
आज विश्व के वैज्ञानिकों द्वारा की गई खोजों के आधार् पर ये कहा जाता है कि अणु के भीतरी भाग में एक तरह की नियति या कहें कि शून्य है।अणु के भीतर इस शून्य के द्वारा ही सूक्ष्म शरीर की रचना होती है।परन्तु एक शून्य द्वारा उत्पन सूक्ष्म शरीर द्वारा स्थूल शरीर को छोडकर चले जाना ही आज के वैज्ञानिकों के सामने एक बडी पहेली है। लेकिन यदि वेदांत का आश्रय लिया जाए तो शायद इस पहेली को सही रूप में आसानी से सुलझाया जा सकता है।
इन आधारों पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि हो सकता है कि विज्ञान शायद पुनर्जन्म की इस पहेली को जल्द ही सुलझा ले;लेकिन इस विषय में मेरा तो ये मानना है कि विज्ञान चाहे किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचे किन्तु अन्त में उसे हमारे विचारों का समर्थन करना ही होगा। हाँ,ये हो सकता है भले ही उनकी भाषा अद्वैत वेदांत की गूढ भाषा से भिन्न हो।.........................पं. डी. के. शर्मा

मंत्र

 !! मंत्रों का वैज्ञानिक विश्लेषण !!
मंत्र एक वैज्ञानिक विचारधारा है, एक सत्य है, जिसमे  कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है तथा न ही यह रूढिवादिता है। अपितु मंत्र विज्ञान विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धांतो पर आधारित है। यह् धन दे कर खरीदी जा सकने वाली वस्तु नहीं है। क्यों कि यह तो एक सिद्धि है,सूक्ष्म वैज्ञानिक विचारधारा है, सचेतन शास्त्र है। इसमे न तो आधुनिक मशीनरी सी जटिलता है और न ही अधिभौतिकता,अपितु यह तो एक गहन तकनीक है जिसको समझने के लिए आस्था और संयम बनाए रखकर आध्यात्मिक सागर में उतरना होता है।
आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के अनुसार मंत्र शक्ति मुख्यत: शब्दों की ध्वनि और लय पर आधारित  है।
शब्दों की ध्वनि और लय :- मंत्रों मे ध्वनि और लय का विशेष महत्व है। जो व्यक्ति एक निश्चित लय के साथ मंत्र का उच्चारण करता है, वह उस मंत्र की शक्ति से अवश्य लाभान्वित होता है। लेकिन एक सीधे रूप में उस मंत्र का मात्र पठन कर लिया जाए तो उसका प्रभाव नहीं होगा,क्यों कि उस शब्द और वाक्य के साथ लय का संयोग नहीं है।
किसी शब्द की मूल ध्वनि वह है जिससे उसका निश्चित प्रभाव पड सके। मंत्रों में शब्द अथवा उसका अर्थ अपने आप में अधिक महत्व नहीं रखते,अपितु उसकी ध्वनि विशेष महत्वपूर्ण है।
आंतरिक विधुत धारा विज्ञान के अनुसार जिस भी शब्द का उच्चारण हम लोग करते हैं,वह इस ब्राह्मंड में तैरने लगता है। उदाहरण के लिए एक रेडियो स्टेशन पर किसी भी गीत की पंक्ति का अंश बोला जाता है तो वह उसी समय वायुमंडल में फैल जाता है। तथा विश्व के किसी भी देश,किसी भी कोने में श्रोता यदि चाहे तो उसके रेडियो के माध्यम से उस गीत की पंक्ति का अंश सुन सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि रेडियो में सूई उसी फ्रीक्वैंसी पर लगाने की जानकारी हो। इस प्रकार ग्राहक और ग्राह्य का आपस में पूर्ण संपर्क आवश्यक है, उसी प्रकार मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तो मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कंपन बनता है जो कि संपूर्ण वायु मंडल में व्याप्त हो जाता है। इसके साथ ही आंतरिक विधुत भी तरंगों में निहित रहती है। यह आंतरिक विधुत, जो शब्द उच्चारण से उत्पन्न तरंगों में निहित रहती है, शब्द की लहरों को व्यक्ति विशेष या संबंधित देवता,ग्रह की दिशा विशेष की ओर भेजती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि यह आन्तरिक विधुत किस प्रकार उत्पन्न होती है? यह बात वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा मान ली गई है कि ध्यान,मनन,चिन्तन आदि करते समय जब व्यक्ति एकाग्र चित्त होता है,उस अवस्था में रसायनिक क्रियायों के फलस्वरूप शरीर में विधुत जैसी एक धारा प्रवाहित होती है(आंतरिक विधुत) तथा मस्तिष्क से विशेष प्रकार का विकिरण उत्पन्न होता है। इसे आप मानसिक विधुत कह सकते हैं। यही मानसिक विधुत (अल्फा तरंगें) मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर,दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है या इच्छित कार्य संपादन में सहायक सिद्ध होती है। यह मानसिक विधुत(उर्जा)भूयोजित न हो जाए,इसीलिए मंत्र जाप करते समय भूमी पर कंबल,चटाई,कुशा इत्यादि के आसन का उपयोग किया जाता है।
मानव की भौतिक इच्छाओं की लालसा से प्रेरित होकर हमारे आर्य ऋषियों नें, ध्वनि समायोजन कर के, भाषा को मंत्रों का स्वरूप प्रदान किया था, जिसे कि आज हम रूढिवादिता मान बैठे हैं।..........पं. डी. के. शर्मा

आत्मा

!! अब कैसे नकारेंगे, भूत-प्रेत और आत्माओ के अस्तित्व को !!
पिछले कुछ दिनों से यहाँ ब्लागजगत में विभिन्न चिट्ठों पर भूत-प्रेत आधारित कईं लेख पढने को मिले । जहाँ अधिकांश लोग प्रेतात्माओं के अस्तित्व को स्वीकारते दिखाई दिए, तो वहीं ऎसे लोग भी हैं जो कि ऎसी बातों को दकियानूसी,मूर्खतापूर्ण विचार कह कर नकार देते हैं । उनकी दृ्ष्टि में आत्मा,परमात्मा जैसी चीजों के बारे में सोचना ही किसी मनोरोग से पीडित इन्सान के लक्षण हैं।
 देखा जाए तो सृ्ष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक चाहे विश्व की कोई भी सभ्यता,संस्कृ्ति रही हो, सब ने किसी न किसी रूप में भूत-प्रेत इत्यादि आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकार किया है । आज भी पश्चिम के कई देशों में मृतात्मा को बुलाकर उनके साथ बातें करने जैसे प्रयोग अक्सर होते रहते है । इसलिए भूत-प्रेत की बातों को गुब्बारे की भान्ती सिरे से हवा में उड़ा देना भी ठीक नहीं है । मनुष्य की अनुभूति का दायरा अभी सीमित है । संसार के अनेकानेक रहस्य ऎसे हैं, जिनका पता लगाया जाना अभी बाकी है । इसी बज़ह से प्रेतात्माओं के अस्तित्व को नकारने की अपेक्षा यदि थोडा गंभीरतापूर्वक अन्वेषण किया जाए तो हो सकता है कि प्रकृ्ति के किन्ही गुह्यतम रहस्यों को उजागर किया जा सके ।
यदि अपनी बात करूं तो मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि मैं भूत प्रेत इत्यादि आत्माओं के अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास रखता हूँ  । अब जो लोग इन सब बातों को सिर्फ मन की कल्पना या किसी प्रकार का मनोरोग मान बैठे हैं, अक्सर उन लोगों का ये तर्क होता है कि यदि भूत प्रेत इत्यादि आत्माएं हैं भी तो फिर वो हमें दिखाई क्यों नहीं पडती । चलिए इसके बारे में बात करते हैं,लेकिन इसे समझने के लिए हमें सबसे पहले स्थूल एवं सूक्ष्म के बारे में जानना होगा,उनकी प्रकृ्ति को समझना होगा ।

बैज्ञानिक दृष्टीकोण से ........
अपने आसपास हम लोग जिन स्थूल गतिमान वस्तुओं को देखते हैं, उनमें सर्वाधिक गति से चलने वाले हवाई जहाज की गति भी लगभग 1500/2000 मील प्रतिघंटा के करीब होगी । परन्तु अन्तरिक्ष यान की बात की जाए तो उसकी गति इससे भी कहीं अधिक है, जो कि एक घंटे में लगभग 17500 मील(शायद) की गति से चलता है । अब मनुष्य के अतिरिक्त प्रकृ्ति रचित पदार्थों की बात की जाए तो सूर्य, चन्द्रमा,पृ्थ्वी तारे इत्यादि विभिन्न आकाशीय पिंड हैं,जिनकी सर्वाधिक गति है ।  पृ्थ्वी तो अपनी धुरी पर 24 घंटे में महज 25000 मील की दूरी ही तय करती है परन्तु सूर्य जिसका अपना ब्यास ही 8,66000 मील है, जो कि पृ्थ्वी के ब्यास से 100 गुणा से भी अधिक है । उसे इस दूरी को लाँघने में प्राय: 25 दिन का समय लग जाता हैं । हाँ, सूर्य स्थूल होते हुए भी पृ्थ्वी की भान्ती सघन नहीं है ।
अब यदि इनकी तुलना शब्द (ध्वनि) से की जाए---जो कि इनसे सूक्ष्म है, तो उसकी गति इन सब से अधिक हैं। प्रकाश की गति शब्द से भी अधिक है,जो कि एक सैकिंड में 1,88000 मील की दूरी तय कर लेता है । प्रकाश से भी सूक्ष्म मन को माना जाए तो उसकी गति का तो कोई माप ही नहीं है । हम सिर्फ इतना ही जानते हैं कि मन की भी कोई गति होती है, जो कि एक क्षण में भूत-भविष्य की सभी सीमाएं लाँघ जाता है । अब यदि मन से आत्मा को ओर अधिक सूक्ष्म कहें तो उसकी कोई गति है या नहीं, यह भी बता पाने में हम लोग असमर्थ हैं ।
कुल मिलाकर कहने का अर्थ ये है कि ज्यों ज्यों हम स्थूल से सूक्ष्म तत्व की ओर बढते गए, त्यों-त्यों गति और शक्ति में भी वृ्द्धि होती चली गई ।
ऎसा नहीं है कि आत्मा की कोई गति नहीं है । गति है, किन्तु जिस प्रकार अत्यंत गतिशील वस्तु हमारी स्थूल आँखों से चलायमान नहीं दिखाई देती, बल्कि स्थिर हो जाती है । ठीक उसी प्रकार से आत्मा की भी गति है, किन्तु जिसे नापने का हमारे पास कोई पैमाना नहीं है ।
अत्यंत गतिशील वस्तु हमें स्थिर भी इसलिए दिखाई पडती है, कि हमारी आँख उस गति का अनुसरण नहीं कर पाती । हाँ, आजकल ऎसे कैमरे अवश्य निर्मित हो गए हैं, जो कि तेज गति से चलती वस्तु की भी तस्वीर खीँच सकते हैं, लेकिन वो भी एक सीमा तक ही ।  किसी सूक्ष्म वस्तु के मापन के लिए भी उतना ही सूक्ष्म यन्त्र चाहिए होता है,जितनी कि वस्तु सूक्ष्म है ।
वैज्ञानिक ये बता सकते हैं कि पृ्थ्वी का कितना वजन है, केवल पृ्थ्वी ही क्यों सूर्य, चन्द्र इत्यादि आकाशीय पिंडों के घनत्व,द्रव्यमान, गति इत्यादि के बारे में भी काफी अधिक जान चुके हैं । लेकिन ये नहीं बता सकते कि सूक्ष्माणु का आकार कितना है, उसमें कितना भार है? उसकी गति कितनी है?  । क्यों नहीं बता सकते; क्यों कि हमारे पास उसके माप-तौल का कोई यन्त्र नहीं है । तो फिर मन और आत्मा तो अणु से भी सूक्ष्म ठहरे । उनका मापन, दृ्श्यावलोकन कैसे हो ? कुछ भी हो विज्ञान की ये विवशता आत्मा जैसे सूक्ष्म तत्व के महत्व को ही प्रमाणित करती है ।
जल की शक्ति से हम सभी लोग भली भान्ती परिचित हैं । परन्तु जब यही जल वाष्प रूप में परिवर्तित हो कर सूक्ष्म रूप में आ जाता है तो उसकी शक्ति भी कईं गुणा बढ जाती है । यही भाप यदि ओर भी सूक्ष्म हो जाए तो उसकी शक्ति भी उत्तरोतर प्रचंड वेगदायक होती जाएगी ।  
हमें विज्ञान बताता है कि सूक्ष्म की गति और शक्ति स्थूल से अनेक गुणा अधिक है । और यदि हम भूत-प्रेत आदि किसी आत्मा की बात करें जो कि सूक्ष्म से भी कहीं सूक्ष्म है तो तर्क से यह भी माना जा सकता है कि इन सूक्ष्म तत्वों की गति और शक्ति भी अनन्त है--------और आयु भी ।   

पृ्थ्वी, जल,अग्नि,वायु,आकाश नामक पाचों तत्वों में से किसी की भी मृ्त्यु नहीं होती, इनमें से कोई तत्व नष्ट नहीं होता। सिर्फ इनका रूप परिवर्तन ही होता है । तो क्या यह न माने कि मनुष्य की मृ्त्यु भी उसका अन्त नहीं है,क्यों कि मनुष्य शरीर भी तो इन्ही पंच तत्वों से ही बना है । जब उपरोक्त पाचों तत्वों में से किसी भी तत्व का अन्त नहीं हो रहा तो मनुष्य शरीर का अन्त मनुष्य का अन्त कैसे ?
विज्ञान कहता हैं कि हमारा जो ये स्थूल शरीर है,वास्तव में यह असंख्य परमाणुओं का एक पुंज है । ओर प्रत्येक परमाणु के भीतर एक इलैक्ट्रान और एक प्रोटोन होता है, जो कि भिन्न दिशाओं में करोडों चक्कर प्रतिक्षण लगाते रहते हैं । अब ये चक्कर क्यों लगाते रहते हैं , ये नहीं पता ।

जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो क्या उसका सचमुच अन्त हो जाता है? अब शरीर मर गया, गल गया, जल गया, डूब गया, तो भी इन परमाणुओं का नाश तो नहीं हुआ । जिन अणुओं,परमाणुओं के समूह से वह बना था, वो तो उसके मरने के बाद भी नष्ट नहीं होते, उसी तरह चक्कर काटते रहते हैं । जो बुनियादी वस्तु है वो तो फिर भी विद्यमान है। जो परमाणु पुंज था,  वही मात्र बिखर गया । हमारे पास इन सब चीजों को देखने का कोई साधन नहीं इसलिए हम ऎसा मानते हैं कि अमुक व्यक्ति मर गया । पर हमें क्या खबर कि आगे चलकर क्या हुआ? जल से वाष्प बना तो क्या हुआ ?----एक तो वाष्प रूप में परिवर्तित होने से उसकी गति और शक्ति दोनों ही कईं गुणा बढ गई, दूसरे आखिर में वो दुबारा से जल ही बना । ठीक इसी प्रकार से मरने के बाद जो शेष रह जाता है, जिसे कि हम लोग आत्मा के नाम से जानते हैं------उसकी गति एवं शक्ति भी अनन्त गुणा बढ जाती हैं । इन्ही आत्माओं को चाहे तो हम लोग भूत कह लें या प्रेत, जिनकी गति और शक्ति भी जीवित इन्सान के भीतर मौजूद आत्मा से कहीं अधिक बढ चुकी होती है । किन्तु ये आत्माएँ भी अस्तित्व के रहते हुए शरीर साधन के बिना कुछ अभिव्यक्ति प्रकट नहीं कर पातीं । हाँ, भूत-प्रेत के रूप में उनके सूक्ष्म शरीर की हरकतें यदा-कदा अवश्य प्रकाश में आ जाती हैं । 
अणु,परमाणु से भी सूक्ष्म जो ये शक्ति (आत्मा) है, माना कि उसका हुलिया,उसकी आकृ्ति,प्रकृ्ति के बारे में विज्ञान अभी नहीं बता सकता । परन्तु यदि सूक्ष्मतम का साक्षात्कार करने में हम लोग विवश हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि एक सीमा से आगे रास्ते बन्द हो चुके हैं और सूक्ष्मतर या सूक्ष्मतम जैसी कोई चीज है ही नहीं । परन्तु सत्य तो ये है कि इस सूक्ष्मीकरण का कोई अन्त नहीं, सूक्ष्मतम के बाद भी रास्ता आगे बढता ही चला जाता है, जिस पर कि हमारी कल्पनाशक्ति भी दौडने में असमर्थता प्रकट कर देती है । हम विवश हैं, इससे सूक्ष्मतम असिद्ध नहीं होता बल्कि हमारी निरीहता ही प्रकट होती है ।
सचमुच कितने लाचार हैं हम उस सृ्ष्टिकर्ता के आगे............. पं. डी. के. शर्मा