पृ्थ्वी लोक पर साठ हजार वर्ष का जीवन ?
काल शब्द से एक निश्चित "समय" का बोध होता है। किन्तु समय की सीमा में काल को नहीं बांधा जा सकता। "काल" अनन्त है। सिर्फ अपनी मान्यता के अनुरूप ही हम उसे समय की एक निश्चित सीमा में बाँधने का प्रयत्न करते हैं। सृ्ष्टि अनेकों बार रची गई, नष्ट हुई लेकिन काल का कभी अन्त नहीं हुआ। पृ्थ्वी पर चौबीस घण्टे का एक दिन-रात होता है लेकिन शायद आदिकाल में स्थिति कुछ ओर ही थी। भूगर्भशास्त्रियों का मत है कि जब तक पृ्थ्वी पूरी तरह से ठंडी नही हुई थी, आग्नेय दशा में भी तब तक पृ्थ्वी के विभिन्न भागों में दिन रात सिर्फ दो घण्टे का ही हुआ करता था। अब सूर्य के उदय अस्त होने से ही हमें दिन रात का ज्ञान होता है। उसकी गति को आधार मानकर ही हम समय की गणना करते हैं। किन्तु यदि आधार सूर्य को न मानकर किसी अन्य ग्रह अथवा किसी ब्राह्मंड के किसी अन्य पिंड को मान लिया जाए तो हमारी मान्यताओं में बडा भारी अन्तर आ जाएगा। यदि शनि ग्रह को आधार मान लिया जाए तो हमारा एक वर्ष होगा तीस वर्षों के बराबर। इसी प्रकार यदि बृ्हस्पति ग्रह् को आधार मान लें तो यही साल बारह वर्षों के बराबर हो जाएगा। काल की गणना सूर्य की गति सापेक्ष की जाती है। अगर सापेक्षता का आधार बदल दिया जाए तो काल की सम्पूर्ण अवधारणा ही बदल जाएगी।
नेप्चयून ग्रह का एक वर्ष हमारी इस पृ्थ्वी के 180 वर्षों के बराबर है। यदि वहाँ जीवन की कल्पना की जाए तो वहाँ का छ: महीने का बच्चा यहाँ पृ्थ्वी के नब्बे वर्ष के बुजुर्ग के बराबर होगा। उस ग्रह के 100 वर्ष के बुजुर्ग की आयु यहाँ पृ्थ्वी की गणना के अनुसार 18000 वर्ष होगी। बाल्मीकी रामायण में एक प्रसंग आता है कि यज्ञ की रक्षा के लिए जब विश्वामित्र राजा दशरथ के पास राम,लक्षमण को लेने पहुँचे तो पुत्रों के प्रति अपनी संवेदना प्रदर्शित करते हुए राजा दशरथ कहने लगे कि " हे कौशिक्! साठ हजार वर्ष का जब मैं हो गया तो तब जाकर मुझे इन पुत्रों की प्राप्ति हुई (षष्ठि वर्ष सहस्त्राणि जातस्य मम कौशिक)"। अब यदि कोई पश्चिम मुखापेक्षी तर्कवादी या कोई विधर्मी इसे पढे तो यही कहेगा कि हिन्दु धर्म ग्रन्थों में कितनी बकवास बातें लिखी हुई हैं। भला ऎसा भी कभी हो सकता है कि किसी की आयु साठ हजार वर्ष हो! ग्रन्थ नहीं बल्कि ये तो झूठ के पुलिन्दे हैं।
अब उनकी बात भी सही है, क्यों कि पृ्थ्वी लोक पर साठ हजार वर्ष का जीवन तो बिल्कुल अकल्पनीय ही लगता है। लेकिन यदि नेप्चयून ग्रह के मान से गणना की जाए तो यहाँ के सवा तीन सौ वर्ष से कुछ अधिक होंगें। यदि किसी अन्य तारे/पिंड को आधार मानें तो साठ हजार वर्ष वहाँ के तीस चालीस वर्ष हो सकते हैं । सम्भव है काल की गणना उस रामायण काल में किसी अन्य ग्रह के सापेक्ष होती हो।
यह विश्व अनन्त है। ऎसे पिंड भी सृ्ष्टि में हो सकते हैं जिनके वर्ष का मान हमारी अपेक्षा इतना बडा हो कि हमारा एक कल्प(चारों युगों का कुलमान) उस पिण्ड के एक दिन के समान हो। ऎसी स्थिति में वो पिण्ड शास्त्रों में वर्णित "सत्यलोक", "शिवलोक","विष्णुलोक" अथवा "ब्रह्मलोक" भी तो हो सकता है। क्या नहीं हो सकता ?....................पं. डी. के. शर्मा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें